Saturday, 3 April 2010

समर्पण

क्या सच है, क्या झुठ... क्या वर्तमान क्या भविष्य
जीने के हर प्रयास में करता हुं हर पल ये विचरण।

क्या विश्व है माया, या अपने भुत का भुगतान
हर समय चल रहा... ये विचारों का रण।

धरा से जुडा हुआ, आकाश कि चाह करता,
इस नश्वर शरीर का हर कण
शून्य से निकलकर, शून्य मे लिन हो,
जन्म लेतेही हर जीव ने किया ये समर्पण।

यत्न कर बन सके, हम भी शिष्य पार्थ से
जो दे सके ’भगवन’ हमे "विश्वरुप"दर्शन।

समझु मै "अस्तित्व" को, जानकर समाज-दर्पण
हो युगंधर कि साधना, उसके ही रुप में अर्पण॥

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